‘जिग्स और फिक्श्चर्स’ इस लेखमाला के पहले लेख में हमने जिग और फिक्श्चर के लाभ और उनकी उपयोगिता के बारे में जानकारी पाई है। साथ में, कार्यवस्तु को सटीकता से लोकेट करने के लिए, 3-2-1 तंत्रज्ञान की भी जानकारी ली है। इस लेख में हम यंत्रण करते समय इस्तेमाल किए जाने वाले जिग और फिक्श्चर के प्रकारों की जानकारी लेने वाले हैं।
यंत्रण के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले फिक्श्चर मुख्यत: तीन प्रकार के होते हैं
1. साधारण मशीन (जनरल पर्पज मशीन) पर इस्तेमाल किए जाने वाले फिक्श्चर : अगले भाग में हम टर्निंग, ड्रिलिंग, मिलिंग जैसी मशीन पर इस्तेमाल किए जाने वाले जिग और फिक्श्चर की जानकारी लेंगे।
2. स्पेशल पर्पज मशीन के लिए बनाए गए फिक्श्चर : ये फिक्श्चर वजन में ज्यादा होते हैं। विशिष्ट प्रकार की मशीन और कार्यवस्तु के लिए बनाए जाने की वजह से इनको निश्चित की हुई जगह से हिलाने की जरूरत नहीं होती है।
3. सी.एन.सी. मशीन के लिए बनाए गए फिक्श्चर : ये फिक्श्चर साधारणतः अधिक सुविधाजनक तथा वजन में हल्के होते हैं। इसमें टूल को गाइड करने की आवश्यकता नहीं होती है। अब हम जनरल पर्पज मशीन पर कार्यवस्तु अचूकता से पकड़ने वाले फिक्श्चर के घटकों की जानकारी लेंगे।
i. विभिन्न प्रकार के लोकेटर
ii. विभिन्न प्रकार के क्लैंप
iii. उपर नीचे होनेवाले आधार (जैक)
iv. फूल प्रूफिंग (पोकायोके), संभाव्य गलती टालने के हेतु ली गई सावधानी
v. विभिन्न प्रकार के गाइड बुश
vi. मिलिंग फिक्श्चर के लिए सेटिंग पीस, जिसका इस्तेमाल टूल (मिलिंग कटर) सेट करने के लिए होता है।
vii. फिक्श्चर को मशीन पर स्थापित तथा लोकेट करने का प्रबंध
viii. मजबूत ढ़ाँचा (स्ट्रक्चर)
इस लेख में विभिन्न किस्म के लोकेटर की जानकारी दी गई है। कार्यवस्तु की अचूकता लोकेशन पर निर्भर होती है। फिक्श्चर के लोकेशन पॉइंट की देखभाल रखना बहुत ही महत्वपूर्ण है, क्योंकि कार्यवस्तु की गुणवत्ता इसी पर निर्भर होती है।
छेद में स्थापित होनेवाला लोकेटर अर्थात लोकेटिंग पिन
राउंड लोकेटिंग पिन 1 यह मुख्य पिन है जिससे कार्यवस्तु निश्चित स्थान पर स्थापित होती है। अब यह कार्यवस्तु, पिन 1 का स्थान स्थिर रख के A और B दिशाओं में घूम सकती है (चित्र क्र. 1)। वस्तु की इस हलचल को रोकने के लिए चित्र क्र. 2 की ओर ध्यान देते हैं।
जैसे चित्र क्र. 2 में दिखाया गया है, कार्यवस्तु को A दिशा में धकेलते हुए ओरिएंटेशन पिन से सटाया गया है। अब क्लैंप करने पर वस्तु हिल नहीं सकेगी। ओरिएंटेशन पिन कार्यवस्तु की गोलाकार दिशा में होनेवाली गतिविधि नियंत्रित करती है।
चित्र क्र. 1 एवं 2 के अनुसार पिन 1 कार्यवस्तु के छिद्र में अर्थात अंदरूनी हिस्से में स्थापित की गई है। यह छिद्र नियंत्रित किया होता है, इसी वजह से इसे मुख्य स्थान (प्राइमरी लोकेशन) कहा जाता है। पिन 2 को गौण स्थान (सेकेंडरी लोकेशन) कहा जाता है। पिन 2 वस्तु के बाह्य पृष्ठ पर स्थापित की गई है। अगर यह बाह्य पृष्ठ नियंत्रित नहीं किया गया तो वस्तु का दाहिना हिस्सा अलग अलग जगह घूमेगा। अर्थात वस्तु की गोलाकार दिशा में होनेवाली गतिविधि अनियंत्रित हो जाएगी और इसका असर अचूकता पर होगा।
अब हम स्प्रे गन के टर्निंग फिक्श्चर का उदाहरण देखेंगे। चित्र क्र. 3 में एक स्प्रे गन, टर्निंग फिक्श्चर के साथ, दिखाई गई है। स्प्रे गन ऐल्युमिनिअम से बनाई गई है। चित्र क्र. 4 में स्प्रे गन हटाकर सिर्फ फिक्श्चर देखने से मालूम होता है कि पिन 1, गोल लोकेटिंग पिन ने स्प्रे गन को लोकेट किया है और यह स्प्रे गन इस पिन के इर्दगिर्द गोलाकार घूम कर पिन 2 के पास सट जाती है। स्विंग लैच स्प्रे गन के करीब ला कर क्लैम्प से स्प्रे गन दृढ़ता से पकड़ी जाती है। यहाँ हमें पिन 1 और पिन 2 के कार्य मालूम होते हैं।
गोल पिन के विभिन्न प्रकार
चित्र क्र. 5 अ, ब, क, ड़ तथा इ में विभिन्न प्रकार की गोल लोकेटिंग पिन दिखाई गई हैं। लोकेटिंग पिन के फेस (आगे वाले पृष्ठ) को गोल आकार या चैंफर देना आवश्यक है, जिससे कार्यवस्तु पिन में लोकेट करने में सुविधा होती है। साधारणतः कार्यवस्तु और पिन के बीच स्लिप फिट रचना होती है।
चित्र क्र. 6 में ओरिएंटेशन पिन का इस्तेमाल न कर के, दाहिनी ओर दिखाया गया स्लाइडिंग ‘वी’ ब्लॉक का इस्तेमाल किया है। इससे दो बातें हासिल होती हैं
1. ‘वी’ ब्लॉक, कार्यवस्तु की अ और इ दिशा में होनेवाली गतिविधि नियंत्रित करता है। इसे ‘ऐवरेजिंग आउट द एरर’ (averaging out the error) भी कहते हैं।
2. जब कार्यवस्तु के बाह्य गोलाकार पृष्ठ के व्यास में असमानता होती है तब ओरिएंटेशन पिन के बदले स्लाइडिंग ‘वी’ ब्लॉक का इस्तेमाल करना पड़ता है। यह ‘वी’ ब्लॉक आगे पीछे सरकनेवाला होने के कारण वस्तु को पकड़ना और उसे ढ़ीला करना संभव होता है।
वस्तु पर छोटे बड़े दोनों छिद्र मौजूद होने पर कार्यवस्तु दोनों छिद्रों में लोकेट की जाती है, लेकिन ऐसे समय डाइमंड पिन का इस्तेमाल करते
हैं। इसका आकार चित्र क्र. 7 में दिखाया गया है। पिन की ताकत बढ़ाने के लिए 60ॅ का कोण दिया जाता है।
साथ ही जिन दो छिद्रों में कार्यवस्तु लोकेट की जाती है, उनकी केंद्रों के बीच के अंतर को भी डाइमंड पिन के कारण समा लिया जाता है। डाइमंड पिन का A-B अक्ष, C-D अक्ष से 900 के कोण में स्थापित किया जाता है।
‘वी’ लोकेटर
चित्र क्र. 8 में वी लोकेटर दिखाया गया है। चित्र देखकर यह बात मालूम होती है कि घेरे का व्यास बदल जाने के बावजूद घेरे का केंद्रबिंदु लंबरूप अक्ष पर ही नीचे ऊपर होता है। इसी कारण, चित्र क्र. 8 के अनुसार ड्रिलिंग करने पर, घेरे का व्यास बदलने पर भी ड्रिल उस घेरे के केंद्र से ही जाता है।
चित्र क्र. 9 में हम देखते हैं कि ‘वी’ का अक्ष जमीन से समांतर है। ऐसी अवस्था में अगर बेलन (सिलिंडर) का व्यास बदला गया तो दोषयुक्त कार्यवस्तु मिलेगी।
डॉवेल पिन
चित्र क्र. 10 में दंड़गोल आकार की डॉवेल पिन दिख रही है। हो सके तो डॉवेल पिन के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले छिद्र आरपार हो ताकि उनको निकालने में आसानी होगी क्योंकि वे दबा कर (प्रेस फिट) बैठाई जाती हैं। डॉवेल का उपयोग दो भागों को अचूकता से जोड़ने के लिए किया जाता है। साथ ही, डॉवेल के इस्तेमाल से, वे (भाग) हिल नहीं सकते और उस जोड़ की ताकत भी बढ़ती है। ध्यान में रखें कि दो डॉवेल पिन के बीच अधिकतम दूरी रखी जानी चाहिए।
चित्र क्र.11 में दो स्क्रू का इस्तेमाल दो भाग जोड़ने के लिए किया गया है। लेकिन सिर्फ स्क्रू के इस्तेमाल से जोड़ हिलने की संभावना होती है, जिससे गलत कार्यवस्तु बन सकती है। डॉवेल पिन के बिना फिक्श्चर की हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
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अजित देशपांडेजी को जिग और फिक्श्चर के क्षेत्र में 36 साल का अनुभव है। आपने किर्लोस्कर, ग्रीव्हज, लोंबार्डिनी, टाटा मोटर्स जैसी अलग अलग कंपनियों में विभिन्न पदों पर काम किया है। बहुत सी अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में एवं अठअख में आप अतिथि प्राध्यापक हैं।