जिग्स और फिक्श्चर्स इस लेखमाला के दूसरे लेख में हमने लोकेटर की जानकारी ली। इस लेखमाला के तीसरे लेख में लोकेटर की जानकारी के साथ क्लैंप की भी जानकारी लेना आरंभ करने वाले हैं। शुरु में हम एकरेखीय प्रकार के लोकेटर के बारे में जानेंगे।
जैसा कि चित्र क्र.1 में दिखाया गया है ‘अ’ और ‘ब’ पिन की मदद से कार्यवस्तु को एक सीधी रेखा में रखा जाता है। ‘क’ पिन के कारण कार्यवस्तु बाई ओर जा कर रुकती है। इस तरह कार्यवस्तु बार बार उसी जगह पर अचूकता से रखी जाती है यानि कार्यवस्तु सही तरह से लोकेट की जाती है। ऐसे समय पिन ‘अ’ और पिन ‘ब’ के बीच अधिकतम दूरी रखनी चाहिए। चित्र क्र. 2 में पिन ‘अ’ और पिन ‘ब’ के बीच की दूरी बहुत ही कम रखी गई है। दो पिन के बीच की दूरी अधिकतम रखने से कार्यवस्तु अचूकता से रखी जाएगी, जिससे मिलने वाला उत्पादन अच्छी गुणवत्ता का होगा, यह एकरेखीय प्रकार के लोकेटर का नियम है।
निरर्थक लोकेशन (रिडंडंट लोकेशन)
चित्र क्र. 3 में ‘ड’ और ‘इ’ नाम से दो लोकेटिंग पिन दर्शाई गई हैं। कार्यवस्तु की ऊपरी ओर भी ‘अ’ और ‘ब’ ऐसी दो पिन हैं। वैसे देखा जाए तो वस्तु की एक ही ओर पर लोकेशन देना योग्य है। अत्यधिक ‘ड’ तथा ‘इ’ पिन का कोई भी उपयोग नहीं है क्योंकि,
1. अगर कार्यवस्तु की चौड़ाई कम होगी तो वह किसी एक ओर से सट जाएगी। अत: कर्मचारी के समझ में नहीं आएगा कि कार्यवस्तु ऊपरी दो पिन (‘अ’ और ‘ब’) से सटानी है या ‘ड’ और ‘इ’ इन दो पिन से। कोई कर्मचारी कार्यवस्तु ‘अ’ और ‘ब’ पिन से सटेगा, तो कोई अन्य कर्मचारी ‘ड’ और ‘इ’ इन दो पिन से कार्यवस्तु सटेगा। फलस्वरूप कुछ कार्यवस्तु सदोष तो कुछ निर्दोष होगी।
2. अगर कार्यवस्तु की चौड़ाई ज्यादा होगी तो वह ठीक से बैठेगी ही नहीं। इसलिए निरर्थक लोकेशन कभी भी नहीं देने चाहिए। इनसे लाभ तो होता नहीं है लेकिन समस्याएँ बढ़ जाती हैं। निरर्थक लोकेशन का मतलब जानने हेतु हम कुछ और उदाहरण देखते हैं।
चित्र क्र. 4 में 3 पिन कार्यवस्तु के बाहर दी गई हैं। साथ ही, कार्यवस्तु लोकेट करने के उद्देश्य से, एक गोल लोकेटिंग पिन तथा एक डाइमंड पिन दी हुई है। यहाँ दी गई 3 राउंड पिन निरर्थक हैं।
चित्र क्र. 5 में दिखाए हुए बुश बॉडी व्यास एवं कॉलर व्यास इन दोनों स्थानों पर कार्यवस्तु लोकेट की हुई है। यह गलत है क्योंकि इन दोनों भी व्यास पर अलग अलग टॉलरंस होने के कारण कार्यवस्तु किसी एक ही व्यास पर लोकेट होगी यह ध्यान में रखना चाहिए। इस प्रकार के बुश प्रायः उसकी बॉडी व्यास पर ही लोकेट किए जाते हैं। कॉलर व्यास बड़े व्यास में बैठता है, जिसे काउंटर बोर कहते हैं। उसे चित्र क्र. 6 में लाल रंग में दिखाया गया है। दोनों व्यास कितनी मात्रा में समकेंद्रित हैं और व्यास पर दिया हुआ टॉलरंस कितना है इस पर भी लोकेशन का स्थान निर्भर करता है।
अब तक आपको लोकेशन का मतलब तथा निरर्थक लोकेशन टालने के बारे में जानकारी मिली होगी। अब हम क्लैंप की जानकारी लेंगे। हम यहाँ देखेंगे कि क्लैंपिंग की आवश्यकता क्यों है; साथ ही कार्यवस्तु अच्छी तरह से और ठीक तरीके से पकड़ने हेतु अनुपालन करने के आवश्यक नियम आदि।
लोकेशन अचूक होने के बावजूद क्लैंपिंग सोच समझ कर नहीं किया गया तो कार्यवस्तु की भरोसेमंद गुणवत्ता प्राप्त नहीं होती है। क्लैंपिंग सिस्टम (कार्यवस्तु मजबूती से पकड़ने की प्रणाली) निश्चित करते समय निम्नलिखित मुद्दों के बारे में सोचना जरूरी है
1. क्लैंप का डिजाइन सरल और आसान हो।
2. क्लैंप का दबाव इतना ही हो कि काटते समय निर्माण होने वाले बल से कार्यवस्तु हिले नहीं।
3. क्लैंप का उपयोग करते समय उस पर असर करने वाले बल की वजह से वह मुड़े या टूटे नहीं, वह मजबूत हो।
4. कार्यवस्तु सिर्फ अचूकता से लोकेट करने से काम पूरा नहीं होता है। यंत्रण करते समय उसे कस कर पकड़ना पड़ता है। यंत्रण के समय कार्यवस्तु को बिलकुल हिलने नहीं देना, यह क्लैंप का प्रमुख काम है।
5. कार्यवस्तु को पकड़ने के लिए और उसे ढ़ील देते समय, कम से कम समय लगना चाहिए।
6. कार्यवस्तु लोड या अनलोड करते समय क्लैंप के कारण बाधा या रुकावट नहीं आनी चाहिए।
7. क्लैंप के नीचे आधार रखना आवश्यक है। अगर आधार नहीं होगा तो कार्यवस्तु ऊपर उठ जाएगी, दब जाएगी या टेढ़ीमेढ़ी हो जाएगी।
8. कार्यवस्तु के कमजोर हिस्से पर क्लैंप का दबाव आ जाने से वह मुड़ या टूट भी सकती है।
9. कार्यवस्तु और आधार के संपर्क में आने वाला क्लैंप का भाग कठोर (हार्ड) किया जाता है। अधिकतर क्लैंप सख्त (टफन) किए जाते हैं जिससे उनकी ताकत बढ़ती है।
अब हम हमेशा इस्तेमाल किए जानेवाले क्लैंप की जानकारी लेंगे, जिनको प्रायः स्ट्रैप क्लैंप कहते हैं।
चित्र क्र. 7 में स्ट्रैप क्लैंप की रचना दिखाई गई है। यह क्लैंप लाल तीर से दर्शाई गई दिशा में आगे पीछे कर सकते हैं। स्टड और हील पिन (आधार पिन) के पास स्लॉट दिया हुआ है। इस स्लॉट की मदद से वह आगे पीछे कर सकते हैं। क्लैंप अगर पीछे नहीं किया गया तो कार्यवस्तु को फिक्श्चर से उठाकर बाहर निकालना संभव नहीं होता है। साथ ही कार्यवस्तु को मजबूती से पकड़ने के लिए क्लैंप आगे की ओर सरकाना पड़ता है। स्टड के ऊपरी हिस्से में स्थित नट को घुमाने से क्लैंप नीचे की ओर आ कर कार्यवस्तु को मजबूती से पकड़ता है। कार्यवस्तु को निकालते समय, क्लैंप ढ़ीला करने हेतु, नट उल्टि दिशा की ओर घुमाना पड़ता है। चित्र क्र. 7 में दिखाए स्प्रिंग की मदद से क्लैंप ऊपर की ओर उठाया जाता है। इसके कारण कार्यवस्तु लोड या अनलोड करना आसान होता है।
क्लैंप के जिस भाग से कार्यवस्तु को दबाया जाता है उस भाग पर ‘R’ त्रिज्या दी हुई है। इसकी वजह यह है कि हर कार्यवस्तु की मोटाई अलग अलग होती है। जिसके कारण क्लैंप ऊपर नीचे होते समय भी कार्यवस्तु उचित ढ़ंग से पकड़ी जाती है। क्लैंप का जो भाग कार्यवस्तु और हील पिन के संपर्क में आता है, उसे कठोर किया जाता है।
इसका महत्वपूर्ण घटक है X और Y का अनुपात। अगर X का मूल्य Y से कम होगा तो, लीवर के नियम के अनुसार, कार्यवस्तु पर आने वाला दबाव कम होता है। जितना मुमकिन हो सके, X=Y इसी अनुपात का इस्तेमाल कीजिए और ज्यादातर यही इस्तेमाल होता है।
स्ट्रैप क्लैंप का उदाहरण
चित्र क्र. 8 में दिखाए फिक्श्चर में 3-2-1 इस सिद्धांत के अनुसार कार्यवस्तु उचित रूप से लोकेट की गई है। यंत्रण करते समय कार्यवस्तु के हिलने की संभावना होती है। कार्यवस्तु न हिलने हेतु इसमें 2 स्ट्रैप क्लैंप इस्तेमाल किए गए हैं। इन स्ट्रैप क्लैंप का इस्तेमाल उचित प्रकार से करने के लिए उसमें जो भाग आवश्यक होते हैं, वे चित्र क्र. 9 में दिखाए गए हैं। देखते हैं कि उनमें से कुछ भागों का कार्य किस प्रकार से होता है।
लॉक नट : क्लैंप स्टड और हील पिन को लॉक नट लगाने से दोनों भागों की ऊंचाई कम-ज्यादा कर सकते हैं। साथ ही वे मजबूती से भी पकड़े जा सकते हैं। विशेषत: कार्यवस्तु क्लैंप करते समय क्लैंपिंग नट घुमाना पड़ता है, उस समय स्टड भी घूम सकता है। यह टालने के लिए लॉक नट दिया जाता है।
हेक्स क्लैंपिंग नट : हेक्स क्लैंपिंग नट का प्रयोग, स्ट्रैप क्लैंप की मदद से, कार्यवस्तु कसने हेतु होता है। पाने (स्पैनर) का इस्तेमाल कर के क्लैंपिंग नट घुमाया जाता है। स्ट्रैप क्लैंप नीचे आ जाने से कार्यवस्तु मजबूती से पकड़ी जाती है।
वॉशर : क्लैंप नट और स्ट्रैप क्लैंप के बीच में वॉशर रखा जाता है। इसी प्रकार उसे स्प्रिंग और स्ट्रैप क्लैंप के बीच में भी रखा होता है। क्लैंप का स्लॉट आरपार हो तो, वॉशर के प्रयोग से, संपर्क क्षेत्र में वृद्धि होती है। इसके कारण कार्यवस्तु को पकड़ने का काम अधिक अच्छी तरह से होता है।
हील पिन : कार्यवस्तु को मजबूती से पकड़ने से इस पर दबाव आता है जिसे कार्यवस्तु और हील पिन प्रतिक्रिया देते हैं। हील पिन की वजह से कार्यवस्तु कस कर पकड़ी जाती है।
क्लैंप स्टड : क्लैंप स्टड के कारणवश क्लैंप का स्थान निश्चित होता है। जिस नट से कार्यवस्तु क्लैंप की जाती है वह नट इस स्टड पर लगाया होता है, इसलिए इसे क्लैंप स्टड कहा जाता है।
स्प्रिंग : यह क्लैंपिंग प्रणाली का एक अहम घटक है। जब कार्यवस्तु ढ़ीली की जाती है तब स्ट्रैप क्लैंप स्प्रिंग के कारण ऊपर उठाई जाती है। इस वजह से कार्यवस्तु और क्लैंप में दूरी निर्माण होती है। जिससे कार्यवस्तु के लोडिंग और अनलोडिंग के मार्ग से क्लैंप दूर कर सकते हैं। इस प्रकार कार्यवस्तु को निकालना और रखना आसान हो जाता है। जैसे जैसे क्लैंपिंग नट ढ़ीला किया जाता है क्लैंप ऊपर की ओर उठता रहता है।
चित्र क्र. 10 में दिखाएनुसार क्लैंप को दो स्लॉट हैं। एक आरपार स्लॉट क्लैंप स्टड के स्थान पर होने के कारण क्लैंप आगे पीछे करना संभव होता है। दूसरा पूर्वनिश्चित गहराई का स्लॉट हील पिन के स्थान पर दिया गया है। इस स्लॉट के कारण, जब स्पैनर की मदद से नट घुमाया जाता है तब घर्षण के कारण, क्लैंप भी घूमने की संभावना होती है। लेकिन इस स्लॉट की वजह से क्लैंप का घूमना रोका जाता है।
अगले लेख में हम क्लैंप के प्रकार और चल तथा अचल आधार के बारे में जानकारी लेंगे। तब तक अपने वर्कशॉप में ऊपर बताई गई प्रणालियों का इस्तेमाल करने की कोशिश कीजिए। अगर संभव हो तो फोटो खींच कर भेजिए ताकि अगले लेख में उसके बारे में चर्चा कर सकते हैं।
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अजित देशपांडेजी को जिग और फिक्श्चर के क्षेत्र में 36 सालों का अनुभव है। आपने किर्लोस्कर, ग्रीव्ज लोंबार्डिनी लि., टाटा मोटर्स जैसी अलग अलग कंपनियों में विभिन्न पदों पर काम किया है। बहुत सी अभियांत्रिकी महाविद्यालयों में और ARAI में आप अतिथि प्राध्यापक हैं।