फाइनल अकाउंटिंग से संबंधित अकाउंटिंग तत्व

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Dhatukarya - Udyam Prakashan    27-जनवरी-2021   
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हमने देखा है कि व्यवसाय में लाभ एवं हानि और व्यवसाय की संपत्ति एवं देयक की हर साल की स्थिति समझने के लिए, अधिकतर उद्योग व्यवसायों का आर्थिक वर्ष हर साल 31 मार्च को समाप्त होता है। उस तारीख को समाप्त हुए साल का लाभ हानि लेखा और उस तारीख की बैलन्स शीट ये दो महत्वपूर्ण रिपोर्ट बनाए जाते हैं। ये दोनों रिपोर्ट, हिसाब के खातों में साल भर तारीख के अनुसार जिन आर्थिक घटनाओं को दर्ज किया जाता है उनका एक विशेष पद्धति (फॉरमैट) में प्रस्तुत किया सारांश होता है। इसलिए हिसाब के खातों के इस संक्षिप्त संस्करण के लिए अंग्रेजी में फाइनल अकाउंट्स  ( final accounting ) इस समर्पक संज्ञा का उपयोग किया जाता है। फाइनल अकाउंट्स ( final accounting ), व्यवसाय के हिसाब का एक भाग होता है। इसलिए हिसाब रखते समय जिन संकल्पनाओं और पद्धतियों का इस्तेमाल किया जाता है और लेखा शास्त्र में जिन मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर हिसाब रखे जाते हैं उन पर ही फाइनल अकाउंट्स ( final accounting ) आधारित होते हैं। 

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उपर निर्देशित अकाउंटिंग के जिन मूलभूत तत्वों का पालन हिसाब रखते समय किया जाता है, उनके बारे में हम धातुकार्य के दिसंबर 2020 के अंक में जान चुके हैं। इस और अगले लेख में हम, किन संकल्पनाओं के आधार पर तथा किस पद्धति से हिसाब रखे जाते हैं, अंत में ऐसे हिसाब के आधार पर फाइनल अकाउंट्स ( final accounting ) कैसे बनाए जाते हैं और उन्हें कैसे समझ लिया जाता है इन पर चर्चा करेंगे।
हम पहले देख चुके हैं कि विश्व भर के उद्योगों में हिसाब आम तौर पर डबल एंट्री बुककिपिंग तत्व के अनुसार रखे जाते हैं। इन सिद्धांतों के अनुसार किसी भी व्यवहार को दर्ज करते समय, उस व्यवहार से कम से कम दो अकाउंटिंग परिणाम होते हैं इसे ध्यान में रख कर हिसाब लिखे जाते हैं। इन परिणामों में से कुछ डेबिट तथा कुछ क्रेडिट स्वरूप के होते हैं। किसी भी व्यवहार को दर्ज करते समय उसमें डेबिट तथा क्रेडिट परिणामों का जोड़ हमेशा समान रहने की पुष्टि की जाती है।

अकाउंटिंग में डेबिट और क्रेडिट संकल्पनाओं का अहम् स्थान है। कह सकते हैं कि ये संकल्पनाएं अकाउंटिंग शास्त्र में मूलभूत संकल्पनाएं हैं। सामान्य भाषा में क्रेडिट शब्द का अर्थ श्रेय देना होता है, इसलिए अकाउंटिंग के बारे में अधिक जानकारी ना रखने वाले व्यक्ति ऐसा मान सकते हैं कि क्रेडिट का मतलब कुछ अच्छा होता है और डेबिट का मतलब उसके उल्टा याने अच्छा नहीं होता है। लेकिन लेखा शास्त्र में इस संकल्पना को अच्छा या बुरा इस नजर से नहीं देखा जाता। यहाँ इसका अर्थ, कुछ नियमों के आधार पर सिर्फ अकाउंट में रकम डेबिट या क्रेडिट करने तक ही सीमित होता है। हिंदी में डेबिट के लिए 'नामे' और क्रेडिट के लिए 'जमा' इन समर्पक शब्दों का प्रयोग किया जाता है।

लेखा शास्त्र के अनुसार डेबिट और क्रेडिट को, अकाउंट्स के प्रकार के अनुसार डेबिट या क्रेडिट करनेसंबंधि के नियमों के तहत यह अर्थ प्राप्त होता है। अकाउंट्स के प्रकार देखे जाए तो ध्यान देने की बात यह है कि कोई भी अकाउंट नीचे दिए चार प्रकारों में से एक होता है और वह भी उनमें से एक ही प्रकार का हो सकता है।

अकाउंट्स के चार प्रकार

1. संपत्ति अर्थात असेट्स
2. देयक अर्थात लाएबिलिटीज
3. उत्पन्न
4. खर्चा
कोई भी अकाऊंट देखें, तो वह उपरोक्त एक ही प्रकार से संबंधित होता है। मतलब वह अकाउंट व्यवसाय की संपत्ति होगी या देयक होगा, या व्यवसाय का उत्पन्न अथवा खर्चा होगा। इसके अलावा अकाउंट्स का कोई अन्य प्रकार संभव नहीं है। इन चार प्रकारों का वर्गीकरण, तीन भागों में कर के उस हर भाग के लिए कुछ विशेष नियम बनाए गए हैं।

अकाउंट्स अर्थात हिसाब के खातों के ये तीन वर्ग हैं रियल अकाउंट्स, पर्सनल अकाउंट्स और नॉमिनल अकाउंट्स। उपर बताए गए चार प्रकारों में से, उत्पन्न और खर्चा ये दो प्रकार नॉमिनल वर्ग में आते हैं। संपत्ति और देयक का विभाजन करते समय, व्यक्ति तथा संस्था से संबंधित संपत्ति या देयक, पर्सनल अकांउट वर्ग में आते हैं। अगर वें जमीन या वस्तु से संबंधित हो तो वे रियल अकाउंट्स वर्ग में आते हैं।

अब इस हर वर्ग के अकाउंट में रकम कब डेबिट करनी है और कब क्रेडिट करनी हैं उनके नियमों के बारे में जानकारी लेते हैं।

रियल अकाउंट्स
(नकद, बैंक में शेष रकम, जमीन एवं भवन, मशीनरी, कच्चा माल, तैयार माल एवं वस्तु इन में अंतर्भूत सारी संपत्ति)
डेबिट मतलब 'जो आता है' और क्रेडिट मतलब 'जो जाता है'। व्यवसाय में अगर वस्तु या अन्य संपत्ति आ रही हो, तो जिस व्यवहार के कारण वो व्यवसाय में आती है उसे दर्ज करते समय इस संपत्ति या वस्तु के खाते में उस व्यवहार की रकम डेबिट की जाती है। इसके विपरित स्थिति में, अगर ये घटक व्यवसाय के बाहर जाते हो (बिक्री आदि से) तो संबंधित व्यवहार दर्ज करते समय खाते में यह रकम क्रेडिट की जाती है।

पर्सनल अकाउंट्स
(व्यक्ति और संस्था के खाते)
'पाने वाले को नाम/डेबिट' और 'देने वाले को जमा/क्रेडिट' अर्थात व्यवसाय से अगर किसी को पैसे, वस्तु या सेवा दी गई हो, तो संबंधित व्यवहार की रकम उसके खाते से डेबिट की जाती है। इसके विपरित अगर किसी ने पैसे, वस्तु या सेवा व्यवसाय को दिया हो, तो संबंधित व्यवहार की रकम उसके खाते में क्रेडिट की जाती है। उद्यम शुरू करने के लिए मालिक ने उसमें 10,000 रुपये नकद ड़ालने का उदाहरण हम पहले देख चुके हैं। अकाउंटिंग दृष्टि से इसे देखें तो पता चलता है कि व्यवहार का संबंध दो खातों से हुआ है। ये दो खाते हैं नकद खाता अर्थात कैश अकाउंट और दूसरा मालिक की पूंजी यानि कैपिटल अकाउंट। चूंकि इनमें से नकद खाता, व्यवसाय की संपत्ति के वर्गीकरण में समाविष्ट होता है यह रियल अकाउंट वर्ग में आता है। मालिक का पूंजी खाता मालिक से अर्थात व्यक्ति से संबंधित है इसलिए यह खाता पर्सनल अकाउंट वर्ग में आता है। इसी लिए, इस व्यवहार का अकाउंटिंग करते समय नकद खाते के लिए रियल वर्ग का और पूंजी खाते के लिए पर्सनल वर्ग का नियम लागू कर के उस खाते को डेबिट या क्रेडिट करने का निर्णय लिया जाता है।

रियल अकाउंट के नियमों के अनुसार संपत्ति अगर व्यवसाय में आई हो, तो उस संपत्ति के खाते में व्यवहार की रकम डेबिट की जाती है। हमारी मिसाल में नकद व्यवसाय में आई है, इसलिए नकद खाते में 10,000 रुपये डेबिट किए जाएंगे। किंतु मालिक का पूंजी खाता पर्सनल वर्ग में आता है। उसके नियम के अनुसार देने वाले को उस व्यवहार की रकम क्रेडिट करनी होती है। इसलिए मालिक के पूंजी खाते में 10,000 रुपये क्रेडिट किए जाएंगे। इस प्रकार नकद खाते में 10,000 रुपये का डेबिट और पूंजी खाते में उतनी ही रकम का क्रेडिट दर्ज कर के इस व्यवहार को डबल एंट्री पद्धति से पूरा किया जाता है। किसी भी आर्थिक व्यवहार की जो प्राथमिक प्रविष्टि इस प्रकार से हिसाब के किताब में की जाती है, अकाउंटिंग की परिभाषा में उसे जर्नल एंट्री कहते है। यह जर्नल एंट्री, तालिका क्र. 1 में दिखाएनुसार, जर्नल रजिस्टर में लिखी जाती है।

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तालिका क्र. 1
नॉमिनल अकाउंट्स
(उत्पन्न और खर्चे के खाते)
'सभी खर्चे और हानियां डेबिट, सभी उत्पन्न और लाभ क्रेडिट'। मतलब किसी व्यवहार से व्यवसाय में खर्चा होता हो या कोई नुकसान होता हो, तो संबंधित खर्चे के खाते से उस व्यवहार की रकम डेबिट की जाती है। इसके विपरित, अगर किसी व्यवहार से व्यवसाय को उत्पन्न मिलता हो या लाभ होता हो, तो संबंधित उत्पन्न के खाते में व्यवहार की रकम क्रेडिट की जाती है। जैसे कि, व्यवसाय के लिए 500 रुपये की स्टेशनरी नकद में खरीदी गई हो तो, स्टेशनरी इस नॉमिनल वर्ग के अकाउंट में खर्च किए 500 रुपये डेबिट किए जाएंगे। इस व्यवहार के दूसरे परिणाम के कारण नकद व्यवसाय से बाहर जाती है, उसे रियल अकाउंट वर्ग के कैश खाते में 500 रुपये क्रेडिट दर्ज कर के जर्नल एंट्री पूरी की जाती है। दूसरी मिसाल, अगर 'ब' ग्राहक को 1000 रुपये का माल उधारी पर बेचा हो, तो उस व्यवहार को दर्ज करते समय चूंकि 'ब' का खाता पर्सनल वर्ग में आता है, इस व्यवहार में 'ब', व्यवसाय से माल लेता है इसलिए उसके खाते से 1000 रुपये डेबिट किए जाते हैं। यानि उतनी ही रकम उससे व्यवसाय में आने वाली है। इस व्यवहार का दूसरा परिणाम है व्यवसाय की बिक्री। उसे नॉमिनल वर्ग के बिक्री खाते में दर्ज करने के लिए उत्पन्न की रकम उसे क्रेडिट की जाती है।

इस प्रकार हिसाब में की जाने वाली हर प्रविष्टि डबल एंट्री तत्व पर आधारित जर्नल एंट्री होती है। और चूंकि हिसाब तारीख के अनुसार लिखे जाते हैं उन्हें पहले जिस हिसाब की बही में दर्ज किया जाता है, उसे जर्नल रजिस्टर कहते हैं। जर्नल, व्यवहार को हिसाब में दर्ज करने का पहला चरण है। इस प्रकार जिस किताब में तारीख के अनुसार प्राथमिक प्रविष्टि लिखी जाती है उस किताब को रजिस्टर कहा जाता है।


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अगले भाग में हम जानेंगे कि जर्नल के अलावा अन्य कौनसे रजिस्टर हिसाब के किताबों में शामिल होते हैं, इन विभिन्न रजिस्टरों में से हर अकाउंट के डेबिट एवं क्रेडिट परिणाम लेजर द्वारा कैसे अलग निकाले जाते हैं, बाद में इसके आधार पर साल के अंत में फाइनल अकाउंट्स बनाने के लिए हर लेजर अकाउंट में शेष कितना बचा है, वो शेष डेबिट है या क्रेडिट तथा उसे ट्रायल बैलन्स द्वारा कैसे प्रस्तुत किया जाता है।

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