ट्रायल बैलन्स द्वारा क्रेडिट की प्रस्तुति

@@NEWS_SUBHEADLINE_BLOCK@@

Dhatukarya - Udyam Prakashan    17-फ़रवरी-2021   
Total Views |

1_1  H x W: 0 x
धातुकार्य, जनवरी 2021 में प्रकाशित लेख में हमने जाना कि हर व्यवहार का हिसाब दर्ज करने का पहला चरण है जर्नल एंट्री करना। इस तरह डबल एंट्री सिद्धांत के अनुसार इसे तारीख के अनुसार जिन पुस्तकों में प्रथमतः दर्ज किया जाता है, उन पुस्तकों को रजिस्टर कहते हैं। इस भाग में हम जानेंगे कि जर्नल के अलावा और कौनसे रजिस्टर हिसाब के पुस्तकों में शामिल होते हैं, विभिन्न रजिस्टर से लेजर में पोस्टिंग कर के साल के आखिर में फाइनल अकाउंट्स बनाने हेतु हर लेजर अकाउंट में निवल शेष (नेट बैलन्स) कितना है, यह नेट बैलन्स डेबिट है या क्रेडिट और इसे ट्रायल बैलन्स (  trial balance ) द्वारा किस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है।
 
कारोबार के जो भी आर्थिक व्यवहार होते हैं उनके निश्चित प्रकार हैं। जैसे बैंक में नकद या चेक जमा करना, बैंक से नकद या चेक द्वारा रकम निकालना, नकद जमा, नकद खर्चा, नकद बिक्री, नकद खरीद, उधार बिक्री, उधार खरीद, मामूली नकद खर्चे आदि। हिसाब की प्राथमिक प्रविष्टि करते समय हर व्यवहार के संबंध में जो जर्नल एंट्री की जाती है, उन्हें जर्नल रजिस्टर में रेकार्ड करने के बजाय एक ही प्रकार के सारे व्यवहारों को, उनके ही लिए बने विशेष रजिस्टर में लिखा जाता है। इससे लेखन कार्य में बड़ी बचत होती है तथा एक प्रकार के सारे व्यवहार तारीख के अनुसार एक ही रजिस्टर से पढ़े जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, छोटे दैनिक खर्चे। हर रोज कई छोटे नकद (पेटी कैश) खर्चे होते हैं, अकाउंटिंग नियमों के अनुसार ऐसे हर व्यवहार में नकद शेष से (रियल वर्ग के अकाउंट) संबंध आता है। इसलिए हर व्यवहार रेकार्ड करते समय, हर बार जर्नल रजिस्टर में जर्नल एंट्री कर के उस हर एंट्री में नकद शेष खाते में क्रेडिट देने के बजाय, इस प्रकार के सारे व्यवहार पेटी कैश रजिस्टर में दर्ज किए जाते हैं। महीने के अंत में इन सारे खर्चों को एक साथ जोड़ कर उसे एक ही बार नकद शेष खाते में क्रेडिट किया जाता है और विभिन्न खर्चों के खातों के कॉलम में अलग अलग जोड़ कर, संबंधि खर्चे के खातों में डेबिट किया जाता है। अर्थात डेबिट किए सारे खर्चे खातों का जोड़, नकद शेष खाते में क्रेडिट की गई रकम जितना होने की पुष्टि दर्ज करने से पहले की जाती है। बिल्कुल इसी पद्धति से एक ही प्रकार के लेकिन नियमित किए जाने वाले व्यवहारों के लिए अलग अलग रजिस्टर रखे जाते हैं। जैसे, खरीद (परचेस) रजिस्टर, बिक्री (सेल) रजिस्टर, बैंक बुक, कैश बुक आदि। इस हर प्रकार के रजिस्टर में सारे संबंधि व्यवहारों का प्राथमिक रेकार्ड तारीख के अनुसार लिखा जाता है। अर्थात कुछ व्यवहार कभीकभार होते हैं, जैसे जमीन बेचना, विमूल्यन (डेप्रिसिएशन) दर्ज करना आदि। रजिस्टर में जिस प्रकार के व्यवहार रेकार्ड किए जाते हैं उससे ये व्यवहार भिन्न होने के कारण, नियमित व्यवहारों के लिए बने रजिस्टर में इन्हें दर्ज नहीं किया जा सकता। ऐसे अलग व्यवहार सिर्फ जर्नल रजिस्टर में दर्ज किए जाते हैं। इस पद्धति से अकाउंटिंग एंट्री की कुल संख्या में काफी बचत होती है और कई गलतियां टाली जा सकती हैं।
 
रजिस्टर में, डबल एंट्री सिद्धांत के अनुसार प्राथमिक रेकार्ड लिखने के बाद हिसाब रखने के दूसरे चरण में इस जर्नल एंट्री का लेजर पोस्टिंग किया जाता है। यह दूसरा चरण बेहद महत्वपूर्ण होता है क्योंकि हिसाब के प्राथमिक रेकार्ड भले ही तारीख के अनुसार लिखे गए हो, फिर भी विशेष खातों में सारे रजिस्टरों से कौनसे रेकार्ड लिखे गए हैं, इसकी जानकारी रजिस्टर से एक स्थान पर नहीं मिल सकती। जैसे कि, दिन के अंत में किस ग्राहक की कितनी उधारी बाकी है? बैंक का कितना ऋण चुकाना बाकी है...आदि। विशेष अकाउंट संबंधि ऐसे कई सवालों के जवाब पाने हेतु हर खाते (अकाउंट) के लिए स्वतंत्र पन्ने के साथ लेजर बुक अर्थात बही खाते का इस्तेमाल किया जाता है। हर रजिस्टर से लेजर अकाउंट में रेकार्ड करने की प्रक्रिया, हिसाब दर्ज करने का दूसरा चरण होता है और इसे लेजर पोस्टिंग कहते हैं। लेजर की संकल्पना समझने के लिए हम आम तौर पर इस्तेमाल होने वाले पासबुक की मिसाल देखते हैं।
 
बैंक से मिला हुआ आपका पासबुक यानि बैंक के कस्टमर लेजर में आपके नाम लिखा पन्ना होता है। इसलिए जितने पैसे आप बैंक में जमा करते हैं उतने पासबुक में क्रेडिट (डिपॉजिट) कॉलम में दर्शाए (क्रेडिट द गिवर नियम के अनुसार) जाते हैं। आप जितने पैसे बैंक से निकालते हैं उतने पासबुक में डेबिट (विड्रॉवल) कॉलम में (डेबिट द रिसीवर नियम के अनुसार) दर्शाए जाते हैं। आपके हिसाब के पुस्तकों में जो बैंक रजिस्टर (बैंक बुक) रखा जाता है, उसमें यहीं सारे व्यवहार उसी रकम के रखे जाते हैं, लेकिन बैंक पास बुक में जिस बाजू पर इन्हें दर्शाया जाता है उसकी बिल्कुल विपरित बाजू पर ये दर्ज किए जाते हैं। अर्थात बैंक में अगर पैसे जमा किए है, तब डेबिट द रिसीवर नियम के अनुसार बैंक के खाते में यह रकम डेबिट बाजू में दर्ज की जाती है, जिसे ऊपर उल्लेखित पासबुक में क्रेडिट बाजू में दर्शाया होता है।
 
इस प्रकार रजिस्टर से लेजर पोस्टिंग करने के बाद, लेजर बुक में हर खाते में डेबिट तथा क्रेडिट परिणामों को जिन विभिन्न रजिस्टरों से दर्ज किया जाता है, इसकी जानकारी तारीख के अनुसार मिलती है। इसके साथ विशेष खातों में डेबिट और क्रेडिट व्यवहारों का जोड़ और उनमें होने वाला फर्क यानि उस खाते पर शेष कितना है, यह भी पता चलता है। डेबिट तथा क्रेडिट बाजू जोड़ने के बाद जो फर्क आता है, वह उस खाते का उस तारीख का शेष होता है। जिस तरह यह पता चलता है, उसी तरह किस बाजू का जोड़ अधिक है इसका ध्यान रखते हुए शेष, डेबिट प्रकार का है या क्रेडिट प्रकार का यह भी निश्चित होता है। जैसे, किसी ग्राहक को वर्ष के आरंभ से रुपये 15,000 की उधार पर बिक्री करने से उसके खाते पर डेबिट रेकार्ड होता है और अगर उससे रुपये 12,000 की वसूली की गई हो, तो उसके खाते में डेबिट रुपये 15,000 से क्रेडिट रुपये 12,000 घटाने पर रू. 3000 का डेबिट बैलन्स अर्थात उससे प्राप्य (लेना) दिखाई देगा। इस प्रकार लेजर से किसी भी खाते में किस दिन कितना शेष है और वह शेष किस बाजू में यानि डेबिट है या क्रेडिट, इसे समझ सकते हैं।
 
किसी भी खाते का बैलन्स अर्थात शेष निकालने की प्रक्रिया को अकाउटिंग भाषा में बैलन्सिंग ऑफ अकाउंट कहा जाता है। किसी खाते में डेबिट या क्रेडिट बाजू का जोड़ अगर समान हो तो उस खाते में शेष शून्य होगा, और ऐसा खाता उस तारीख पर हिसाब की दृष्टि से पूरा माना जा सकता है। ऐसे खातों के बारे में अधिक सोचने की जरूरत नहीं होती। साल के अंत में जब फाइनल अकाउंट्स बनाए जाते हैं, तब उस तारीख को जिन खातों में कोई भी रकम शेष नहीं होती उनका विचार करने की आवश्यकता नहीं होती।
 
वर्ष के अंत में फाइनल अकाउंट्स बनाने से पहले लेजर में सारे खातों का बैलन्सिंग किया जाता है। एक रिपोर्ट में, लेजर के अनुक्रम के अनुसार हर खाते का नाम लिख कर उस नाम के आगे उस खाते पर वर्ष के अंत में जिस बाजू की रकम शेष होती है उसके अनुसार डेबिट या क्रेडिट कॉलम में उसे लिखा जाता है। इस रिपोर्ट को ट्रायल बैलन्स कहा जाता है। फाइनल अकाउंट्स की प्रक्रिया में यह बहुत बड़ा पड़ाव है।
रजिस्टर्स, लेजर पोस्टिंग और ट्रायल बैलन्स से संबंधित सारी अकाउंटिंग थियरी, जिसे पहले हाथों से लिख कर लागू किया जाता था, वह आज संगणकीय अकाउंटिंग युग में कैसी है, ट्रायल बैलन्स रिपोर्ट बनाने के बाद उस रिपोर्ट से फाइनल अकाउंट्स में लेजर अकाउंट्स का विभाजन लाभ-हानि प्रतिवेदन और बैलन्स शीट में किस प्रकार किया जाता है, इस बारे में हम अगले भाग में जानेंगे।
@@AUTHORINFO_V1@@